लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
भैरों ने रात
तो किसी तरह
काटी। प्रात:काल
कचहरी दौड़ा। वहाँ
अभी द्वार बंद
थे, मेहतर झाड़ई
लगा रहे थे,
अतएव वह एक
वृक्ष के नीचे
धयान लगाकर बैठ
गया। नौ बजे
से अमले, बस्ते
बगल में दबाए,
आने लगे और
भैरों दौड़-दौड़कर
उन्हें सलाम करने
लगा। ग्यारह बजे
राजा साहब इजलास
पर आए तो
भैरों ने मुहर्रिर
से लिखवाकर अपना
इस्तगासा दायर कर
दिया। संधया-समय
घर आया, तो
बफरने लगा-अब
देखता हूँ, कौन
माई का लाल
इनकी हिमायत करता
है। दोनों के
मुँह में कालिख
लगवाकर यहाँ से
निकाल न दिया,
तो बाप का
नहीं।
पाँचवें दिन सूरदास
और सुभागी के
नाम सम्मन आ
गया। तारीख पड़
गई। ज्यों-ज्यों
पेशी का दिन
निकट आता जाता
था, सुभागी के
होश उड़े जाते
थे। बार-बार
सूरदास से उलझती-तुम्हीं यह सब
करा रहे हो,
अपनी मिट्टी खराब
कर रहे हो
और अपने साथ
मुझे भी घसीट
रहे हो। मुझे
चले जाने दिया
होता, तो कोई
तुमसे क्यों बैर
ठानता? वहाँ भरी
कचहरी में जाना,
सबके सामने खड़ी
होना, मुझे जहर
ही-सा लग
रहा है। मैं
उसका मुँह न
देखूँगी, चाहे अदालत
मुझे मार ही
डाले।
आखिर पेशी की
नियत तिथि आ
गई। मुहल्ले में
इस मुकदमे की
इतनी धाूम थी
कि लोगों ने
अपने-अपने काम
बंद कर दिए
और अदालत में
जा पहुँचे। मिल
के श्रमजीवी सैकड़ों
की संख्या में
गए। शहर में
सूरदास को कितने
ही आदमी जान
गए थे। उनकी
दृष्टि में सूरदास
निरपराधा था। हजारों
आदमी कुतूहल-वश
अदालत में आए।
प्रभु सेवक पहले
ही पहुँच चुके
थे, इंदु रानी
और इंद्रदत्ता भी
मुकदमा पेश होते-होते आ
पहुँचे। अदालत में यों
ही क्या कम
भीड़ रहती है,
और स्त्राी का
आना तो मंडप
में वधाू का
आना है। अदालत
में एक बारजा-सा लगा
हुआ था। इजलास
पर दो महाशय
विराजमान थे-एक
तो चतारी के
राजा साहब, दूसरे
एक मुसलमान, जिन्होंने
योरपीय महासमर में रंगरूट
भरती करने में
बड़ा उत्साह दिखाया
था। भैरों की
तरफ से एक
वकील भी था।
भैरों का बयान
हुआ। गवाहों का
बयान हुआ। तब
उसके वकील ने
उनसे अपना पक्ष-समर्थन करने के
लिए जिरह की।
तब सूरदास का बयान
हुआ। उसने कहा-मेरे साथ
इधार कुछ दिनों
से भैरों की
घरवाली रहती है।
मैं किसी को
क्या खिलाऊँ-पिलाऊँगा,पालनेवाले भगवान् है।
वह मेरे घर
में रहती है
अगर भैरों उसे
रखना चाहे और
वह रहना चाहे,
तो आज ही
चली जाए, यही
तो मैं चाहता
हूँ। इसीलिए मैंने
उसे अपने यहाँ
रखा है, नहीं
तो न जाने
कहाँ होती।
भैरों के वकील
ने मुस्कराकर कहा-सूरदास, तुम बड़े
उदार मालूम होते
हो; लेकिन युवती
सुंदरियों के प्रति
उदारता का कोई
महत्तव नहीं रहता।